Posted by: risalsa March 7, 2011
Give first, Get later
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पहले दो, पीछे पाओ यह प्रश्न विचारणीय है कि महापुरुष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई कि त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरंत फलदायी और कोई धर्म नहीं है | त्याग की कसौटी आदमी के खोटे-खरे रूप को दुनिया के सामने उपस्थित करती है | मन में जमे हुए कुसंस्कारों और विकारों के बोझ को हल्का करने के लिए त्याग से बढकर अन्य साधन हो नहीं सकता | आप दुनियाँ से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते हैं, तो त्याग कीजिये | गाँठ में से कुछ खोलिए | ये चीजें बड़ी मँहगी हैं |कोई नियामत लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती | दीजिए, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो , मुक्त हस्त होकर दुनियाँ को दीजिए, बदले में आप को बहुत मिलेगा | गौतम बुद्ध ने राजसिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होंने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया | विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं, " उसने हाथ पसार कर मुझसे कुछ माँगा | मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया | शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था | मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता |" - पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ( अखंड ज्योति मार्च-१९४०, प्रष्ट ९)
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