Posted by: Nepali hero January 31, 2007
Nepali dream - A true wish, must read
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काश मेरा यह ख़्वाब पूरा हो जाए.... चलावने का सपना है कि किताबों का सच उसके गाँव में भी पूरा हो जाए नेपाल के एक दूरदराज गाँव में रहने वाले सोलह वर्षीय अनकालाल चलावने का जैसे कोई ख़्वाब पूरा हो गया. यह ख़्वाब पूरा होना ही तो कहा जाएगा कि उसे सोलह वर्ष की उम्र तक पहुँचने तक अपने गाँव से बाहर निकलने का मौक़ा नहीं मिला था, कार में सवारी करना तो दूर की बात है, उसने साईकिल और टेलीफ़ोन भी नहीं देखे थे लेकिन बीबीसी की नज़र उस पर पड़ गई. बीबीसी की नेपाली सेवा ने एक निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया था और नेपाल के पश्चिमोत्तर हिस्से में रहने वाले अनकालाल चलावने को इस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और बस जैसे उसका एक ख़्वाब पूरा हो गया. यह निबंध रेडियो के लिए रिकॉर्ड कराने के वास्ते जब अनकालाल चलावने नेपालगंज पहुँचा तो उसने कार भी देखीं, साइकिल भी और टेलीफ़ोन भी. यह अनकालाल चलावने का निबंध जिसने उसे अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है... मैं डोल्पा ज़िले के एक बहुत दूरदराज के गाँव स्थित अपने स्कूल की ख़ूबसूरत और प्राकृतिक छटाओं में समय गुज़ारते हुए पिछले क़रीब दस साल से ख़ुद का विकास करने की कोशिश कर रहा हूँ. साथ ही यह सपना भी देखते नहीं थकता कि अपने समाज और देश के लिए मैं कुछ अच्छा कर सकूँ. लेकिन मैं जितनी भी कोशिश करूँ, कोई राह या ख़ुशहाली और उम्मीद नज़र नहीं आती है. जूनियर कक्षाओं से ही मुझे सपने देखने की आदत सी हो गई. अपनी किताबों में ऊँची-ऊँची इमारतों, अस्पतालों, टेलीफ़ोन, कंप्यूटर, बसों और रेलगाड़ियों के बारे में पढ़कर मेरे अंदर भी सपने जागने लगे, उन्हें देखने के लिए. मैं अपने टीचर से पूछता, "हमारे भी गाँव और स्कूल में ऐसी सुविधाएँ क्यों नहीं हो सकती हैं?" टीचर मुस्कुराकर कहते, "एक दिन हमारे ये सपने ज़रूर पूरे होंगे. इन सभी चीज़ों को भी आख़िरकार इंसान ने ही बनाया है." न जाने क्यों लगातार यह उम्मीद और भरोसा बढ़ता रहा कि जो दुनिया के दूसरे हिस्सों में आसानी से मुहैया ये बुनियादी सुविधाएँ एक दिन हमारे गाँव में भी पहुँचेंगी. सपनों की दुनिया लेकिन न जाने क्यों, मुझे लगता है कि यह इंतज़ार बहुत लंबा होने वाला है. इसलिए मैंने फिर से सोचना शुरू कर दिया है... "काश मेरी इच्छाएँ पूरी हो जाएँ तो कितना ही अच्छा हो." आँख खुलती है तो... लेकिन जब मेरी नींद टूटती है तो ख़ुद को अपने बिस्तर में पाता हूँ, और बस उदासी का सिलसिला शुरू हो जाता है. क्या ये आधुनिक सुविधाएँ मेरे लिए सिर्फ़ किताबों में ही सीमित रहेंगी या फिर... नहीं यह नहीं हो सकता. दुनिया के वैज्ञानिकों और विद्वानों की तरह ही मैं भी कुछ अलग करना चाहता हूँ... अनकालाल चलावने सपनों में ही मैं कभी-कभी राजधानी काठमाँडू पहुँच जाता हूँ, कभी-कभी बस की यात्रा भी कर लेता हूँ और सपनों में ही सही, कभी-कभी हवाई जहाज़ की सैर भी हो जाती है. कंप्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल करने का सपना भी देखता हूँ और कभी-कभी तो मैं ख़ुद को चाँद पर चहलक़दमी करते हुए भी पाता हूँ, सपने में ही. लेकिन जब मेरी नींद टूटती है तो ख़ुद को अपने बिस्तर में पाता हूँ, और बस उदासी का सिलसिला शुरू हो जाता है. क्या ये आधुनिक सुविधाएँ मेरे लिए सिर्फ़ किताबों में ही सीमित रहेंगी या फिर... नहीं यह नहीं हो सकता. दुनिया के वैज्ञानिकों और विद्वानों की तरह ही मैं भी कुछ अलग करना चाहता हूँ. और वैसे भी ग्राहम बेल का टेलीफ़ोन, जेम्स वॉट का रेल इंजन, राइट भाइयों के हवाई जहाज़ और इसी तरह के आधुनिक आविष्कार ही तो सारी दुनिया नहीं हैं. जब हम इस तरह के रचनात्कम विश्व में प्रतिस्पर्धा में शामिल होते हैं तो हम न चाहते हुए भी एक तरह के टकराव और हिंसा के माहौल में पहुँच जाते हैं. हिंसा का अंत अगर मेरी इच्छाएँ पूरी होती हैं तो मैं हिंसा की हर वजह को ख़त्म कर दूँगा और मौत को भी सीमित कर दूँगा. दोस्ती और एकजुटता का हाथ मिलाते हुए हम समान विकास की दुनिया की तरफ़ बढ़ेंगे. जो कारें आज राजधानी काठमाँडू की सड़कों पर दौड़ती हैं वे डोल्पा की चिकनी सड़कों पर भी दोड़ती नज़र आएंगी. तब सिर्फ़ हेलीकॉप्टर या छोटे विमान ही क्यों, बड़े हवाई जहाज़ भी मेरे गाँव के ख़ूबसूरत खेतों में उतरते नज़र आएंगे. और तब इंटरनेट पर चैट करते हुए मैं अपने दोस्त मिस्टर जोन्स को डोल्पा के बारे में बताउंगा, जो ब्रिटेन के किसी कॉलेज में पढ़ते होंगे. दुनिया के किसी भी हिस्से में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को डोल्पा की ख़ूबसूरती दिखाने वाली फ़िल्म करावाँ ज़रूर देखनी चाहिए. (करावाँ को 2000 में ऑस्कर के लिए मनोनीत किया गया था) इन पहाड़ी चोटियों, नदी और उनके तटों और मैदानी इलाक़ों को केबल कार के ज़रिए जोड़ना होगा और यहाँ पर सभी आधुनिक सुविधाएँ होंगी. काश मेरी यह ख़्वाहिश पूरी हो सके कि मेरा देश शंगरी-ला के रूप में मशहूर हो.
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