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 हिटलर के ख़िलाफ़ ऐसी बगावत!
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Posted on 02-25-16 2:57 PM     Reply [Subscribe]
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जर्मन तानाशाह हिटलर का नाम ज़ेहन में आते ही, यहूदियों के नरसंहार की याद आती है. दूसरे विश्वयुद्ध की याद आती है. किस तरह एक इंसान की सनक की वजह से पांच करोड़ से ज़्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी.

हम सब यही जानते हैं कि अमेरिका, रूस, ब्रिटेन जैसे मित्र देशों की सेनाओं ने मिलकर हिटलर का ख़ात्मा किया.

मगर, हिटलर के ख़िलाफ़ आम जर्मन लोगों ने भी अपने अपने तरीक़े से आवाज़ उठाई थी. ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी कहानियां हम जानते हैं. किसी पर उपन्यास लिखा गया, तो किसी पर फ़िल्म या डॉक्यूमेंट्री बनी.

इस बार के बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में ऐसी ही एक फ़िल्म देखने को मिली. जिसमें हिटलर का विरोध करने वाले एक दंपति की कहानी है. फ़िल्म का नाम है 'अलोन इन बर्लिन'.

सुनने में ही नहीं असल तजुर्बे में भी बड़ा अजीब लगता है कि आप बर्लिन में हैं, बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में हैं और एक ऐसी फ़िल्म के बारे में बात कर रहे हैं जिसके नाम में भी बर्लिन है. मगर इस फ़िल्म के किरदार अंग्रेज़ी में बोलते हैं.

'अलोन इन बर्लिन' ऐसे विरोधाभास बयां करने वाली फ़िल्म है. वैसे, पश्चिमी जगत की फ़िल्मों में यह चलन आम है. हिटलर के दौर की फ़िल्मों में अक्सर किरदार, जर्मन के अलावा दूसरी भाषाएं बोलते नज़र आते हैं.

Image copyrightGETTY

हमने सोचा था कि अब वह दौर पीछे छूट गया. जर्मनी बदल गया, जर्मनी के बारे में लोगों की राय भी बदली होगी लेकिन, अफ़सोस, ऐसा नहीं हुआ.

हालांकि 'अलोन इन बर्लिन के निर्माता' फ्रेंच एक्टर, विंसेंट पेरेज़ ने फ़िल्म को जर्मन ज़बान में बनाने की कोशिश की थी. मगर, इसके लिए वह पैसे नहीं जुटा पाए.

आप जिस परिवेश की फ़िल्म बना रहे हों, अगर उसी ज़बान में बनाएं तो किरदार ज़्यादा असरदार मालूम होते हैं. जैसे, 'अलोन इन बर्लिन' जैसी स्टोरीलाइन वाली जर्मन फ़िल्म, 'द लाइव्स ऑफ़ अदर्स'. ये फ़िल्म बहुत कामयाब रही थी.

बहरहाल, हम बात करते हैं 'अलोन इन बर्लिन की'.

ये फ़िल्म जर्मन लेखक हैन्स फ़ालदा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है. हैन्स का उपन्यास एक सच्ची घटना पर था. ये दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हिटलर के ख़िलाफ़ छपने वाले कुछ गिने-चुने पहले उपन्यासों में एक था.

कहानी में गिने चुने किरदार हैं. ये ऑटो और एना क्वांगेल नाम के जर्मन दंपति की ज़िंदगी की कहानी बयां करती है.

Image copyrightGetty

दोनों हिटलर के दौर के आम जर्मन शहरी हैं. ऑटो क्वांगेल, एक फैक्ट्री में काम करने वाला ईमानदार क़िस्म का फ़ोरमैन है. वहीं, उसकी पत्नी एना 'नाज़ी वाइव्ज़ लीग' के लिए पैसे जुटाने का काम करती थी. ये किरदार हॉलीवुड के कलाकारों, ब्रेंडेन ग्लीसन और एमा थॉमसन ने निभाए हैं.

क्वांगेल दंपति, बर्लिन में बहुत ही बोरिंग ज़िंदगी जी रहे हैं. अपने-अपने काम से जब वो लौटते हैं तो दोनों में बहुत कम बात होती है, गिने-चुने लफ़्ज़ इस्तेमाल होते हैं. अपने छोटे से फ़्लैट में यूं ही, बिना किसी मंज़िल की परवाह किए दोनों ठहरे पानी सी उबाऊ ज़िंदगी बिता रहे हैं.

इस ठहरी हुई ज़िंदगी में भूचाल आ जाता है, जब क्वांगेल दंपति को पता चलता है कि उनका बेटा, फ्रांस में जंग के दौरान मारा गया है.

जब जर्मनी के बाक़ी लोग फ्रांस के ऊपर अपने देश की जीत का जश्न मना रहे होते हैं, क्वांगेल दंपति अपने बेटे के मारे जाने के शोक में डूबे हैं.

ऑटो क्वांगेल को हिटलर एक विजेता नहीं, बल्कि झूठा, नफ़रत करने वाला हत्यारा लगता है. शांत रहने वाले ऑटो के अंदर का बाग़ी इंसान जाग उठता है. वह अपने ही तरीक़े से हिटलर की राह में रोड़े अटकाने के मिशन पर चल पड़ता है.

Image copyrightReuters

हिटलर के विरोध के लिए वह एकदम अलग तरह की साज़िश रचता है. वो पोस्टकार्ड्स पर, पर्चों में हिटलर के ख़िलाफ़ लिखकर, गुमनाम तरीक़े से कभी किसी के दरवाज़े पर तो कभी किसी इमारत की सीढ़ियों पर छोड़ आता है. इन पर्चों में, 'हिटलर ने मेरे बेटे को मार डाला' या फिर, 'हिटलर यूरोप को बर्बाद कर देगा' लिखा होता है. इस काम में उसकी पत्नी एना भी शामिल हो जाती है.

फ़िल्म में ब्रेंडन ग्लीसन और एमा थॉमसन जिस तरह अपने जर्मन किरदार जीते हैं, इससे उनकी एक्टिंग की गहराई का अहसास होता है. एना के तौर पर थॉमसन एक नरमदिल, कमज़ोर मगर सिर उठाकर जीने वाली बीवी के तौर पर नज़र आती है. वहीं ग्लीसन ने अपना दर्द सीने में छुपाए ऑटो क्वांगेल का किरदार भी बख़ूबी जिया है. जिसके चेहरे पर उसके दिल के भीतर छिपे घाव दिखाई नहीं देते.

उसे देखकर लगता है कि ऐसे बाग़ी पर्चे लिखना कोई बड़ी बहादुरी का काम नहीं. बल्कि उस जैसे लोगों के लिए यही सही तरीक़ा है अपनी आवाज़-अपनी तक़लीफ़ बयां करने का.

मगर, यही सच के क़रीब दिखने वाला अभिनय इस फ़िल्म की कमज़ोरी मालूम होता है. दरअसल फ़िल्म की कहानी ऐसी है कि बहुत आगे जा नहीं सकती. देखने वाले को भी मालूम है कि आगे क्या होने वाला है. इससे फ़िल्म में रोमांच महसूस नहीं होता.

Image copyrightGetty

ऑटो का इरादा हिटलर के ख़िलाफ़ कोई बड़ा आंदोलन छेड़ने का बिल्कुल नहीं है. न वह विरोध का कोई नया तरीक़ा आज़माना चाहता है. इसलिए उसका नियमित रूप से पोस्टकार्ड लिखना एक वक़्त बाद उबाऊ लगने लगता है.

'अलोन इन बर्लिन' में कोई रोमांच नहीं, कोई पेंच-ओ-ख़म नहीं. पोस्टकार्ड लिखकर फेंकने के अलावा अगर कुछ और काम क्वांगेल दंपति करते हैं तो वह है नाज़ी अफ़सरों से बचने की जुगत. इसमें भी कोई नयापन नहीं. जहां कहीं वो नाज़ी ख़ुफ़िया अफ़सरों या पुलिसवालों को देखते हैं, वहां से निकल लेते हैं.

और, सबसे बड़ी बात ये कि हमें ये भी नहीं मालूम होता कि हिटलर के ख़िलाफ़, ऑटो के पर्चे-पोस्टकार्ड कोई असर छोड़ पा रहे हैं या नहीं. आख़िर लोग उसके पर्चों को पढ़कर क्या राय क़ायम कर रहे हैं?

फ़िल्म की कहानी और बोरिंग लगने लगती है, जब मालूम होता है कि ऑटो को अपनी गिरफ़्तारी का कोई ख़ौफ़ नहीं.

वह बचने का कोई प्लान नहीं बना रहा. न गिरफ़्तार होने की सूरत में किसी तरह की मुख़ालिफ़त का उसका इरादा है. उसके लिए दांव पर कुछ भी नहीं. न उसकी ज़िंदगी, न मिशन. ऐसी सूरत में वह गिरफ़्तार होता है तो किसी नुक़सान का डर नहीं और बच जाने की सूरत में कोई फ़ायदा नज़र नहीं आता.

Image copyrightGetty

यह बात ठीक भी लगती है. अपने घर का चिराग़ गंवाने के बाद, आख़िरी क्वांगेल दंपति के पास गंवाने के लिए है भी क्या? मगर देखने वाले, फ़िल्म के इस पहलू से और बोर ही होते हैं. जैसे क्वांगेल को इंतज़ार है ख़ुद के पकड़े जाने का.

वैसे ही दर्शक भी उसकी गिरफ़्तारी के इंतज़ार में थिएटर में बैठे होते हैं कि कब उसे नाज़ी अफ़सर पकड़ें और वो घर जाएं.

फ़िल्म में एक ही दिलचस्प किरदार है, इंस्पेक्टर एस्चेरिख. उसे अपनी नैतिकता पर कोई शक नहीं. वह मानता है कि उसकी ज़िम्मेदारी, ये देशविरोधी पर्चे लिखकर फेंकने वाले अपराधी को पकड़ना और क़ैदख़ाने में डालना है.

मगर, ये साफ़ दिल इंस्पेक्टर भी हिटलर की ख़ुफ़िया पुलिस एसएस के अफ़सर की बेदिली पर हैरान हो जाता है. जो उस पर लगातार किसी न किसी को गिरफ़्तार करने का दबाव बनाता रहता है.

लेकिन, इंस्पेक्टर का किरदार भी फ़िल्म में कोई चौंकाने वाला रोमांच नहीं पैदा कर पाता. हिटलर के अफ़सर निर्दयी थे. इसमें कोई नयापन तो नहीं.

कुल मिलाकर, हिटलर के ख़िलाफ़ आम आदमी के विरोध की यह आवाज़ बेहद कमज़ोर मालूम होती है. जिसे चाहकर भी सुन पाना मुश्किल है.


 


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