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केपीसर, भोली बिरामी भएको निहुॅमा भारत गएर लम्पसार परेको देख्नु नपरोस । तिम्रो विगत पनि दुधले नुहाएको छैन । अहिलेलाई शुभकामना ।
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ॐ सर्व मंगल्य मांगल्ये शिवे सरबार्थ साधिके
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमस्तुते ।।

नवरात्रि – दुर्गा और लक्ष्मी से जुड़े आयाम एक चक्र की तरह हैं
तो ये दोनों घटित होते रहते हैं। जो चीज जड़ता की अवस्था में है, वह रजस व सक्रियता की स्थिति में आएगी और फिर से वापस जाकर एक खास समय के लिए जड़ता की स्थिति में पहुंच सकती है। उसके बाद फिर सक्रिय हो सकती है। यह एक व्यक्ति के रूप में आपके साथ हो रहा है, यही पृथ्वी के साथ हो रहा है, यही तारामंडल के साथ हो रहा है, यही समूचे ब्रह्मांड के साथ हो रहा है। ये सब जड़ता की अवस्था से सक्रिय होते हैं, और फिर जड़ता की अवस्था में चले जाते हैं। मगर महत्वपूर्ण चीज यह है कि इस इंसान में इस चक्र को तोडक़र उसके परे जाने की काबिलियत है।

आपको अपने अस्तित्व और पोषण के लिए इन तीन आयामों को ग्रहण करने में समर्थ होना चाहिए, क्योंकि आपको इन तीनों की जरूरत है। पहले दो की जरूरत आपके जीवन और खुशहाली के लिए है। तीसरा परे जाने की चाहत है।

दशहरा – तमस, राजस और सत्व तीनों से परे
नवरात्रि के बाद दसवां और आखिरी दिन विजयदशमी या दशहरा होता है। इसका अर्थ है कि आपने इन तीनों गुणों पर विजय पा ली है। आपने इनमें से किसी से हार नहीं मानी, आपने तीनों के आर-पार देखा है। आप हर एक में शामिल हुए मगर आपने किसी में भी खुद को लगाया नहीं। आपने उन्हें जीत लिया। यही विजयदशमी है यानि विजय का दिन। इससे हमें यह संदेश मिलता है कि हमारे जीवन में जो चीजें मायने रखती हैं, उनके लिए श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव रखना सफलता और जीत की ओर ले जाता है।

हम जिन चीजों के संपर्क में हैं, जो चीजें हमारे जीवन को बनाने में योगदान देती हैं, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण उपकरण हमारा अपना शरीर और मन हैं, जिनका इस्तेमाल हम अपने जीवन को कामयाब बनाने में करते हैं। जिस पृथ्वी पर आप चलते हैं, जिस हवा में सांस लेते हैं, जिस पानी को पीते हैं, जिस भोजन को खाते हैं, जिन लोगों के संपर्क में आते हैं और अपने शरीर व मन समेत हर चीज जिसका आप इस्तेमाल करते हैं, उन सब के लिए आदर भाव रखना, हमें जीवन की एक अलग संभावना की ओर ले जाता है। इन सभी पहलुओं के प्रति आदर और समर्पण रखना हमारी हर कोशिश में सफलता को सुनिश्चित करने का तरीका है।

इस धरती पर रहने वाले हर इंसान के लिए विजयदशमी या दशहरा का उत्सव बहुत सांस्कृतिक महत्व रखता है, चाहे उसकी जाति, वर्ग या धर्म कोई भी हो। इसलिए इस उत्सव को खूब उल्लास और प्रेम से मनाना चाहिए।

नवरात्रि और देवी पूजा का इतिहास

स्त्री शक्ति की पूजा इस धरती पर पूजा का सबसे प्राचीन रूप है। सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि पूरे यूरोप और अरब तथा अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों में स्त्री शक्ति की हमेशा पूजा की जाती थी। वहां देवियां होती थीं। धर्म न्यायालयों और धर्मयुद्धों का मुख्य मकसद मूर्ति पूजा की संस्कृति को मिटाना था। मूर्तिपूजा का मतलब देवी पूजा ही था। और जो लोग देवी पूजा करते थे, उन्हें कुछ हद तक तंत्र-मंत्र विद्या में महारत हासिल थी। चूंकि वे तंत्र-मंत्र जानते थे, इसलिए स्वाभाविक था कि आम लोग उनके तरीके समझ नहीं पाते थे। उन संस्कृतियों में हमेशा से यह समझ थी कि अस्तित्व में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे आप नहीं समझ सकते और इसमें कोई बुराई नहीं है। आप उसे समझे बिना भी उसके लाभ उठा सकते हैं, जो हर किसी चीज के लिए हमेशा से सच रहा है। मुझे नहीं पता कि आपमें से कितने लोगों ने अपनी कार का बोनट या अपनी मोटरसाइकिल का इंजिन खोलकर देखा है कि वह कैसे काम करता है। आप उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते, मगर फि र भी आपको उसका फायदा मिलता है, है न?

इसी तरह तंत्र विज्ञान के पास लोगों को देने के लिए बहुत कुछ था, जिन्हें तार्किक दिमाग समझ नहीं सकते थे और आम तौर पर समाज में इसे स्वीकार भी किया जाता था। बहुत से ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिन्हें आप नहीं समझते मगर उसका फायदा उठा सकते हैं। आप अपने डॉक्टर के पास जाते हैं, आप नहीं समझते कि यह छोटी सी सफेद गोली किस तरह आपको स्वस्थ कर सकती है मगर वह उसे निगलने के लिए कहता है। वह जहर भी हो सकती है मगर आप उसे निगल जाते हैं और कभी-कभी वह काम भी करती है, हर समय नहीं। वह हर किसी के लिए काम नहीं करती। मगर वह बहुत से लोगों पर असर करती है। इसलिए जब वह गोली निगलने के लिए कहता है, तो आप उसे निगल लेते हैं। मगर जब एकेश्वरवादी धर्म अपना दायरा फैलाने लगे, तो उन्होंने इसे एक संगठित तरीके से उखाडऩा शुरू कर दिया। उन्होंने सभी देवी मंदिरों को तोड़ कर मिट्टी में मिला दिया।

दुनिया में हर कहीं पूजा का सबसे बुनियादी रूप देवी पूजा या कहें स्त्री शक्ति की पूजा ही रही है। भारत इकलौती ऐसी संस्कृति है जिसने अब भी उसे संभाल कर रखा है। हालांकि हम शिव की चर्चा ज्यादा करते हैं, मगर हर गांव में एक देवी मंदिर जरूर होता है। और यही एक संस्कृति है जहां आपको अपनी देवी बनाने की आजादी दी गई थी। इसलिए आप स्थानीय जरूरतों के मुताबिक अपनी जरूरतों के लिए अपनी देवी बना सकते थे। प्राण-प्रतिष्ठा का विज्ञान इतना व्यापक था, कि यह मान लिया जाता था कि हर गांव में कम से कम एक व्यक्ति ऐसा होगा जो ऐसी चीजें करना जानता हो और वह उस स्थान के लिए जरूरी ऊर्जा उत्पन्न करेगा। फि र लोग उसका अनुभव कर सकते हैं।

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