Posted by: chanaa_tarkaari June 2, 2007
--चौतारी-५७--
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कुमलवा को कविता हमिले अपने दाह्री कटाइन उस लरकी जाने बाटोमे हमि डेरा जमाएँ बाप सँगे झगरा करेर एगो चुडा दुकान रखाएँ तर ओ रास्ता से ससुरि कहिले आइन तबसे सला हमिले कहिले दाह्री कटाइन दिलुवामे अपना सधैँ उसैको राखिलिएँ उसके खातिर बडका तिलक तोडिलिएँ पर हमरे दिलमे ससुरि कहिले अटाइन हमिले सला तबसे दाह्री कटाइन निकै मिहिनेत करेँ पाउन बुरिलाइ सला यादै करिन हमरे बढेको भुरिलाइ भुरि हेरि, फेस मे ससुरि इन्ट्रेस्ट लगाइन कस्सम उसके बाद हमिले दाह्री कटाइन जे राम जि कि :(
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